नई दिल्ली : दिल्ली के बॉर्डर पर आंदोलनकर्ता किसानों का कहना है कि वो सुप्रीम कोर्ट की पहल का स्वागत करते लेकिन, उनका आरोप है कि जो कमिटी किसानों की मांगों को लेकर बनाई गई है वो सरकार के ही पक्ष में काम करेगी. बीकेयू के नेता राकेश टिकैत ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि जिन चार लोगों की कमिटी बनाई गई है उनपर किसानों को भरोसा नहीं है क्योंकि इनमें से कुछ एक ने कृषि बिल को लेकर सरकार का समर्थन किया है.
सुप्रीम कोर्ट में चली कार्यवाही के बाद फ़ोन पर बात करते हुए राकेश टिकैत ने कहा कि किसान अपना आंदोलन जारी रखेंगे और अपने आंदोलन के स्थल को भी नहीं बदलेंगे. उनका कहना था, हम सुप्रीम कोर्ट का आभार व्यक्त करते हैं कि माननीय मुख्य न्यायाधीश और बेंच के दूसरे न्यायाधीशों ने कम से कम आंदोलन कर रहे किसानों की मुश्किलों को समझा.
मगर टिकैत का कहना है कि बिल को स्थगित करने से किसानों को कुछ नहीं मिलने वाला है. उन्होंने कहा, हमारी मांग है कि सरकार कृषि क़ानून वापस ले. इसके अलावा हम कुछ नहीं चाहते. ये तो तय है कि जब तक बिल वापसी नहीं, तब तक घर वापसी नहीं.
किसान यूनियनों ने इसके पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि वो इस मामले में किसी कमिटी गठन के पक्ष में नहीं हैं और ये भी कह दिया था कि उनकी तरफ से मगंलवार को सुनवाई के दौरान कोई वकील मौजूद नहीं रहेगा. इससे पहले संयुक्त किसान मोर्चा ने साझा एक बयान जारी कर कहा कि सरकार की हठधर्मिता से साफ़ है कि वो क़ानून वापस लेने के सवाल पर कमिटी के सामने राज़ी नहीं होगी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद बैठकों का दौर शुरू हो गया है और किसान संगठन अपनी आगे की रणनीति को लेकर विमर्श कर रहे हैं.
संयुक्त किसान मोर्चा के लिए काम कर रहे परमजीत सिंह का कहना है कि लगभग सभी संगठन इस पर सहमत हैं कि कमिटी बनाने से कोई हल निकलने वाला नहीं है. वो कहते हैं, क़ानूनों को अगले आदेश तक स्थगित करने का मतलब है कि मामला खिंच जाएगा और बात घूम फिर कर वहीं आ जाएगी.
कृषि मामलों के जानकार अरविन्द कुमार का कहना था कि किसानों को सरकार की नीयत पर इसलिए शक हो रहा है क्योंकि जिस तरीके से इन क़ानून को पारित कराने की प्रक्रिया अपनाई किसान उसे ग़लत मानते हैं. अरविन्द कुमार कहते हैं कि अगर सरकार इन क़ानूनों को पारित करने से पहले संसद का विशेष सत्र बुला लेती और सदस्य इस पर अपनी राय व्यक्त करते तो शायद सरकार की नियात पर किसानों को शक नहीं होता.
वहीं अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के संयुक्त सचिव अवीक साहा ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही के बाद किसान संगठनों के प्रतिनिधियों ने फैसला किया है कि गणतंत्र दिवस पर जो ट्रैक्टर मार्च निकालने का आह्वान किया गया है वो जारी रहेगा. उन्होंने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि ये मार्च तब निकालने की बात कही गई है जब सरकारी कार्यक्रम समाप्त हो जाएगा. वो कहते हैं, गणतंत्र दिवस पर सरकारी कार्यक्रम के खत्म होने के बाद भारत का नागरिक इस दिवस का जश्न मना सकता है. ये सबका अधिकार है.
साहा कहते हैं कि किसान संगठनों ने ये भी तय किया है कि वो सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को चुनौती देंगे क्योंकि सभी एकमत हैं कि जो नीति बनाते हैं वो किसानों से बात करें ना कि अदालत. क्रांतिकारी किसान यूनियन के प्रोफेसर दर्शन पाल का कहना था, सुप्रीम कोर्ट की कमिटी में चाहे वो बीएस मान हों या बाक़ी के तीन सदस्य, सब सरकार द्वारा लाए गए कृषि क़ानूनों का समर्थन करते आए हैं. ऐसे में ये एक तरफ़ा फैसला ही लेंगे जिससे किसानों का कोई भला नहीं होने वाला है.
सुप्रीम कोर्ट की ओर से कृषि कानूनों को अगले आदेश तक स्थगित करने के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस राजेन्द्र मल लोढ़ा ने कहा कि उनके पास कमिटी की अध्यक्षता करने का प्रस्ताव आया था जिसे उन्होंने ठुकरा दिया. काटजू सहित दूसरे क़ानूनविदों का भी मानना है कि जो क़ानून संसद ने बनाए हैं उसे निरस्त करने का अधिकार भी संसद को ही होना चाहिए. काटजू मानते हैं, अदालत या जज ये तो कह सकते हैं कि अमुक क़ानून ग़ैर-संवैधानिक है या संविधान के हिसाब से अल्ट्रा वायर्स है. मगर अदालत या जज क़ानून को लागू होने से रोक नहीं सकते.
संवैधानिक विशेषज्ञ गौतम भाटिया ने ट्वीट कर कहा है कि एक तो अदालत किसी क़ानून को निलंबित नहीं कर सकती है. अगर वो ऐसा करती भी है तो उसे पहले इसे ग़ैर-संवैधानिक घोषित करना पड़ेगा. वो कहते हैं कि कृषि क़ानूनों को स्थगित करने से पहले अदालत ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा.