एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक चौकानी वाली बात यह है कि 2015 से 2020 के दौरान 124ए के तहत 356 राजद्रोह के मामले दर्ज हुए, जिसमें करीब 548 लोगों को हिरासत में लिया गया. हालांकि पिछले 6 सालों में 12 गिरफ्तार लोगों पर अपराध साबित भी हुआ.
नई दिल्ली : केंद्र सरकार पर कई बार आरोप लग चुके है कि वह सरकार विरोधी आवाज दबाने या सरकार के नीतियों की आलोचना करने वालों के खिलाफ राजद्रोह कानून का इस्तेमाल कर रही हैं. इस बीच राजद्रोह कानून पर चर्चाओं के बीच एक चौंकाने वाली जानकारी सामने आई है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट में 10 सालों का जो डेटा पेश किया गया है, उसके अनुसार, बिहार में सबसे ज्यादा राजद्रोह के मामले दर्ज किए गए हैं. इसके बाद तमिलनाडु और फिर उत्तर प्रदेश का नंबर आता है.
एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, 2010 से 2020 तक, बिहार में 168 मामले दर्ज किए गए, इसके बाद तमिलनाडु (139), उत्तर प्रदेश (115), झारखंड (62), कर्नाटक (50) और ओडिशा (30) हैं. वहीं हरियाणा 28, जम्मू-कश्मीर- 26, पश्चिम बंगाल- 22, पंजाब- 21, गुजरात- 17, हिमाचल प्रदेश- 15, दिल्ली- 14, लक्षद्वीप- 14 और केरल में 14 मामले दर्ज किए गये.
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक चौकानी वाली बात यह है कि 2015 से 2020 के दौरान 124ए के तहत 356 राजद्रोह के मामले दर्ज हुए, जिसमें करीब 548 लोगों को हिरासत में लिया गया. हालांकि पिछले 6 सालों में 12 गिरफ्तार लोगों पर अपराध साबित भी हुआ.
राजद्रोह से जुड़ी आईपीसी की धारा 124ए को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. सुप्रीम कोर्ट में 124ए की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है. सरकार ने इस कानून का बचाव करते हुए सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि इस पर पुनर्विचार करने की जरूरत नहीं है. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह भी कहा कि 1962 में संविधान बेंच के फैसले के मुताबिक, इस कानून के दुरुपयोग को रोकने के उपाय किए जा सकते हैं.
अगर कोई व्यक्ति सरकार विरोधी सामग्री लिखता या बोलता है, या इस तरह की सामग्री का समर्थन करता है या फिर राष्ट्रीय चिन्हों के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उस शख्स के खिलाफ आईपीसी की धारी 124ए में राजद्रोह का मामला दर्ज हो सकता है. इसके अलावा, अगर कोई शख्स देश विरोधी संगठन के साथ अनजाने में भी संबंधित पाया जाता है या सहयोग करता है तो वह भी राजद्रोह के दायरे में आता है. वहीं शीर्ष अदालत ने 1962 में राजद्रोह कानून की वैधता को बरकरार रखते हुए इसके दुरुपयोग के दायरे को सीमित करने का प्रयास किया था. यह माना गया था कि जब तक उकसाने या हिंसा का आह्वान नहीं किया जाता है, तब तक सरकार की आलोचना को राजद्रोही अपराध नहीं माना जा सकता है.
बताते चले कि राजद्रोह कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस दीपक गुप्ता ने केंद्र सरकार पर निशाना साधते हुए कहा है कि सरकार डर फैलाने के लिए राजद्रोह कानून का इस्तेमाल कर रही है. अब इस कानून को खत्म कर देना चाहिए. दीपक गुप्ता ने कहा, ”प्राथमिकता देशद्रोह के कानून को तुरंत समाप्त करने की थी. वहीं मेरी दूसरी प्राथमिकता यह थी कि पुलिस को ये आरोप कैसे लागू करना चाहिए. इस बारे में विस्तृत दिशा-निर्देश सुप्रीम कोर्ट दे.’’
रिटायर्ड जज दीपक गुप्ता ने आगे कहा, यह केवल तभी लागू होता है जब हिंसा के लिए उकसाया जाता है. हिंसा के लिए उकसाने के बिना धारा 124ए यानी देशद्रोह कानून का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. देशभर के मजिस्ट्रेट इससे अनजान हैं या इसे अनदेखा कर रहे हैं. जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा कि इसका इस्तेमाल सरकारों द्वारा असहमति को रोकने के लिए नागरिकों में डर पैदा करने के लिए किया जाता है. उन्होंने कहा कि कानून का व्यापक रूप से दुरुपयोग किया जाता है और इसके दुरुपयोग के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं.
वहीं कई राजनेताओं भी इसे खत्म करने की बात कह चुके है. इसके साथ ही कुछ दिन पहले एनसीपी के प्रमुख शरद पवार ने भी इस कानून को खत्म करने की बात कही थी. उन्होंने इस मुद्दे पर राज्यसभा में बहस कराने की मांग की थी. पवार ने कहा था कि इस कानून का इस्तेमाल लोगों की लोकतांत्रिक तरीके से उठाई गई आवाज को दबाने के लिए किया जाता है.
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